होली नहीं मनाता फकीर
जो रहता हो
एक रंग में
जो जीता हो
एक रंग मे
जिसने दुनिया के
किसी रंग को
अपना नहीं माना
सुख हो या दुःख
सब उस ईश्वर का जाना
नहीं किया
कभी किसी से गिला
जहर भी मिला तो
हंस कर
मीरा की तरह पिया
पाये अनेक ताने
नानक की तरह
फिर भी
रहे दुनिया से बेगाने
बुद्ध की तरह
खुद को
खो दिया
खुद भी रमे
सब को भी
डुबो दिया
कबीर की तरह
न देखि जात
न पात
सबको दिया
ढाई आखर का पाठ
झांकते रहे
खुद के भीतर
राबिया की तरह
रौशनी देखि
देखा उसका नूर
अपने दादा की तरह
जग में
प्यार फैलाया
मरने से पहले
मरने का
आनंद पाया
लगाया सबको गले
है ही आत्मा
आत्मा से
न कुछ परे
फकीर का
हर रंग एक है
है इसके भीतर
अनेक रंग
फिर भी वो बेरंग है
नहीं चढ़ाता
किसी रंग
खुद पर
अपने रंग में
सबको रंगता है
फिर भी यही कहेंगे
फकीर कभी
होली नहीं मनाता
एक रंग में रहता है
4 Comments:
bahut bahut sundar....
चढ़े न दूजो रंग...सुंदर रचना...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-03-2016) को "होली तो अब होली" (चर्चा अंक - 2293) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
naman.......
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