ओह तू स्त्री है क्या
स्त्री की कलम से निकला
हर शब्द
सच्चा नहीं होता
उसमे होती है मिलावट
वो नहीं लिख सकती
खरा सच
जो उसपे गुजरी
या फिर
जो उसने भोगा
स्त्री होकर
वो अपनी आँखों का देखा भी
सच्ची सच्ची नहीं
कर सकती बयान
क्यों की
सच्चा लिखा
पचा पाना भी
पुरुष समाज के लिए
मुश्किल
अनगिनत आँखे
जो उसे देखती है पीछे से
नापती है
उसके बदन का लोच
स्त्री अपनी
पीठ पे लगी
आँखों से देख लेती है
अपने बदन की
गोलाई का व्याकरण
उसे रिश्तेदार सीखा देते है
छूते है इतनी सफाई से
उसका तन
कि
वो देखकर भी
प्रतिरोध नहीं कर पाती
बता दे अगर
भोगा हुआ
सब पति को तो
बदचलन बन
पति का
कोप भाजन हो जाती है
वाह री स्त्री
तू तो बिना गलती के भी
सजा पाती है
हर शब्द
सच्चा नहीं होता
उसमे होती है मिलावट
वो नहीं लिख सकती
खरा सच
जो उसपे गुजरी
या फिर
जो उसने भोगा
स्त्री होकर
वो अपनी आँखों का देखा भी
सच्ची सच्ची नहीं
कर सकती बयान
क्यों की
सच्चा लिखा
पचा पाना भी
पुरुष समाज के लिए
मुश्किल
अनगिनत आँखे
जो उसे देखती है पीछे से
नापती है
उसके बदन का लोच
स्त्री अपनी
पीठ पे लगी
आँखों से देख लेती है
अपने बदन की
गोलाई का व्याकरण
उसे रिश्तेदार सीखा देते है
छूते है इतनी सफाई से
उसका तन
कि
वो देखकर भी
प्रतिरोध नहीं कर पाती
बता दे अगर
भोगा हुआ
सब पति को तो
बदचलन बन
पति का
कोप भाजन हो जाती है
वाह री स्त्री
तू तो बिना गलती के भी
सजा पाती है
1 Comments:
वाह, बहुत सुन्दर और सटीक रचना
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