आहत हूँ मैं
तुम्हारा यु मेरी
इस तरह
राह देखना
सच मुझे
भीतर तक
भिगो देता है
क्यों देखते हो
मेरी राह
अब तो मैं
तुम्हारे साथ भी नहीं
पास भी नहीं
तुमसे बहुत बहुत दूर
निकल आई हूँ
जहाँ से लौटना
संभव ही नहीं
ये रेशमी परदे
ये खिड़किया
मुझे पता है
सब आज भी
वैसी की वैसी है
सड़क के
उस पार का नजारा
रोज बदलता होगा
बदलती होंगी
परछाइयाँ
सब मेरी तो नहीं
अब नहीं रहा
वो वक़्त
वो बातें
मेरी तुम्हारी
रोज की मुलाकाते
सच अब तुम मुझे
नहीं याद आते
3 Comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-04-2016) को अति राजनीति वर्जयेत् (चर्चा अंक-2314) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
:(
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