Thursday, June 30, 2016

ओह पापा

न जाने क्यों 
वह पापा के नाम से 
नजरे चुराता था

शायद तमाम दर्द थे
जो पापा ने उसे 
उम् भर के लिए
तोहफे में दे गए थे
दे गए थे 
सारी उम्र का कर्ज
विधवा माँ की जिम्मेदारी
दो छोटे भाइयो की पढाई

पापा के पास 
बचपन से सब कुछ था
काजू चिलगोजे से भरी 
दोनों जेबे
जो भी मांगते 
सब एक पल में मिल जाता
और जो न मिलता उसके लिए
अपनी स्वर्गीय माँ का नाम लेकर ऐसा रोते 
दादा जी घबराकर वो चीज उन्हें
दिलवा देते
ऐसी बेजा मांगो को पूरी करवाते हुए 
वो न जाने कब
बहुत जिद्दी, गुस्सैल और हठीले हो गए थे

दादा जी ने सोचा शादी हो जायेगी तो शायद ठीक हो जाये
लेकिन अति सूंदर पत्नी के होते हुए भी उनके स्वाभाव पे
कोई फर्क न पड़ा
क्योंकि पत्नी सिर्फ देखने की सूंदर थी
उसे कुछ भी नहीं आता था
यहाँ तक की बेचारी को
न घर के काम सिखाये गए थे
न दुनियादारी
घमासान तो निश्चित ही था
सो सारी उम्र चलता रहा

कैसे तैसे जिंदगी की गाड़ी चल ही रही थी
उसी बीच न जाने कब हम
तीन भाई आ गिरे
माँ पापा की झोली में

आदते ऐसी होती है जो छुड़ाए नहीं छूट ती
पापा को भी पता नहीं ताश,सट्टा  खेलने का शौक लग गया
चैन स्मोकर तो वो थे ही
पेरफेक्टिनिस्ट इतने की कमीज पे एक सिलवट बर्दाश्त नहीं थी
उन्हें जिद थी की एक फ़िल्म प्रोड्यूस की जाये
सो जुट गए फ़िल्म की तैयारी में
फ़िल्म तो क्या बनती लोगों ने नवाब साहब कह कर सारा पैसा लूट लिया

दादा जी के मेहनत की कमाई
मिनट में शराब, काजू की प्लेट के भेट चढ़ गई
लेकिन पापा इतना गवाकर भी अभी तक होश में नहीं आये थे

उनका बर्बाद होना अभी जारी था
जब तक दादा जी थे हम बच्चे
अच्छे कान्वेंट स्कूल में जाते रहे
लेकिन दादा जी का देहावसान
और हमारे स्कूल की छुट्टी

मंझला भाई रण जी ट्राफी खेलना चाहता था 
करनी पड़ी एक दुकान पे छोटी सी नौकरी

पापा ने भी पता नहीं अपनी नौकरी में क्या किया
जो ससपेंड कर दिए गए

फिर एक दिन किसी रिश्तेदार के यहाँ थे
वही से खबर आई पापा कोमा में आ गए है
आनन् फानन उन्हें एडमिट किया
डॉ भी उन्हें न बचा सके
जिंदगी भर वो हमसे रूठे रहे
अंत में जिंदगी उनसे ही रूठ गई
उम्र भर तो वो हमसे हर बात छिपाते रहे
अपनी मौत से पहले भी कुछ बताना उचित न समझा

रह गए कुछ अन सुलझे सवाल
जिनका अब कोई मायने नहीं
सोचता हूँ सबके पापा उनके लिए आइडियल होते है
मैं अपने पापा को क्या समझु
आइडियल या कुछ और

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