चढ़-चढ़कर आती रही...
वह लहर थी...
जो खामोश लौटता रहा वह समुद्र था....
किनारे पर खड़े होकर
पलायन के तुम्हारे आरोप पर
मैं हंसूं नहीं तो क्या करुं.....
लहर ने नही छोड़ा मुझे चाहना
मैं ही समुंद्र बन उन्हे लौटाता रहा
थी मेरी भी अपनी मज़बूरी
तुम्हे पलायन समझ आता रहा
चलो आरोप ही सह से लेते हैं
कुछ मुख से नही कहते हैं
जब समझ आए तुम्हे मेरी मज़बूरी
तो बिन बुलाए आ जाना
द्वार खुला हैं तुम्हारे लिए
इसे अपना ही घर समझ लेना....
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