राग और द्वेष
दुश्मनी कहाँ से आती हैं?
ये शिकायत से शुरू हो जाती हैं
और शिकायत करते करते
पक्की दुश्मनी मे बदल जाती हैं
होता हैं स्वार्थ पूरा तो
राग कहलाती हैं, और ना हो
पूरा स्वार्थ द्वेष कहलाती हैं
राग हो या द्वेष दोनो ही हमे
जनम मरण मे फसाते हैं
राग होता हैं मीठा जहर
धीरे धीरे असर करता हैं
मारता हैं प्यार से हमको
चुपके से खलास करता हैं
द्वेष हैं तीखा जहर.......
झट से असर करता हैं
बाहर निकले तो दूसरो की जान ले ले
अंदर रहे तो खुद को ही मार डाले
क्या करे इस जहर का....
क्या शिव की तरह इसे गले मे ही रहे डाले
बन जाए नीलकंठ, सबको बचा कर
खुद की ही जान सांसत मे रहे डाले.........
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