साथी हो मन मुताबिक तो
साथी हो मन मुताबिक तो
उड़ान आसान हो जाया करती हैं
वरना तो जिंदगी की दुश्वरिया
"और भी "बढ़ जाया करती हैं
खुद के साथ जीना अच्छा हैं
लेकिन खुद को खुद मे ढूँढ पाना
कहाँ मुमकिन हैं...
ये तो आपका साथी ही
बता सकता हैं
कितने मोड़ तय किए,
कितने बाकी हैं?
कहाँ खुद को छोड़ा था,
कहाँ से पकड़ा हैं..
हम तो कहीं खो से जाते हैं...
साथी ही खोज लाता हैं
तभी साथी का होना
आज भी
प्रासंगिक लगता है........... .
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