Thursday, November 21, 2013

ख़तरे का निशान


जैसे नदिया ख़तरे के निशान से
उपर होती हैं
काश
ऐसे ही हमारा मन भी
ख़तरे का निशान भाप पाता
और
दुखो से
समय रहते
खुद को उपर कर पाता
हमे तो तब पता चलता हैं
जब हम दुखो के सैलाब मे
डूब चुके होते हैं
और बचने के सारे रास्ते
बंद हो चुके होते हैं
तब बच रहती हैं घोर चिंता
कैसे बचाए खुद को
कौन मिले मांझी
जो पकड़ाए हमे किनारा
ले चले उस पार
जहाँ ना हो दुखो का नामोनिशान

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