एक मुट्ठी राख की
एक मुट्ठी राख की
यही है
अपना अस्तित्व
एक शब्द
प्यार का
यही है
अपना दायित्व
क्या हम
अपना दायित्व
निभाते है...
कड़ुवे बोलो से
खुद को बचाते है..
हम चाहते है..
सब हमे प्यार करे..
अपनी जान भी
हम पे निसार करे..
पर हमने
क्या दिया है..
कभी ये भी सोचा है.
पाने की लालसा मे
जीते जाते है..
औरो को हमसे
क्या चाहिए ये तो
बस भूल जाते है..
दायित्व को कैसे निभाए...
प्यार की नई दुनिया बसाए..
दुनिया से दुश्मनी मिटाए
दूसरो की ना सोचे..
जो हमसे बने
करते जाए
अस्तित्व को
यदि हम बचाएँगे
तब भी राख की ढेरी तो
बन ही जाएँगे
अब इस एक मुट्ठी
राख को क्या बचाना है..
यह तो वैसे भी
तब्दील हो जाना है
जिए, जिलाए, देते जाए.
दुनिया के सबसे
सुखी इंसान कहलाए..
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