Monday, October 17, 2011

आज़ाद हो उड़ान पा जाए...


ये कैसी सामाजिकता हैं
ये कैसा कुंठापन
जब प्रेम से अपनाया था
तब तो इनकी कहीँ जगह नही थी
आज ऐसी क्या मज़बूरी
जो मन का आनंद 
व्यथा मे बदल गया हैं
मेरा प्रेम .......
तुम्हे क़ैद नज़र आता हैं
मेरा साथ .......
तुम्हे उष्म नही कर पाता हैं
कोई तो बात हैं जो मैं तुम्हे 
समझा नही पा रही हूँ
कुछ तो ऐसा हैं जो मैं
तुम्हे दे नही पा रही हूँ
कहाँ रह गई हैं कमी 
समझ नही पा रही हूँ
तुम ही कुछ बतला दो..
शायद मेरी मुश्किल कुछ
आसान हो जाए..
और तुम्हारा मन रूपी परिंदा भी
मेरी क़ैद से आज़ाद हो
उड़ान पा जाए...

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home