Wednesday, September 21, 2016


ख्यालों की 
अंगीठी पे
खदबदाते विचार
बटलोई से 
बाहर आने को आतुर
पानी का छीटा 
मार कर 
बार बार 
भीतर भेजती मैं

इसी उहापोह में 
बीतती जिंदगी
कभी जान ही 
न पाई
कहाँ है 
मन की ख़ुशी
भागती रही 
बावरी सी
कभी इधर
कभी उधर

आज समझ में आया
जब समय ही 
न रहा हाथ में
रेत की तरह 
फिसलता जा मिला
आकाश में

लेकिन 
अब पछताए 
क्या होत
जब चिड़िया न खेत

सूना आकाश
विलीन सूरज
घर जा चुके पंछी
खाली खाली सा मन

सब एक से ही 
दीख पड़ते है
तुम ही कहो
कहाँ खोजू तुम्हे
अपने सिवा

खुद के सिवा
--------

1 Comments:

At September 23, 2016 at 12:23 AM , Blogger कविता रावत said...

अपनों की यादें जब-तब देर-सबेर जाने कितने हो रूप में हमारे सामने जब भी आ खड़ी होती हैं तो मन में उथल-पुथल मच जाती हैं, ...
बहुत अच्छी रचना

 

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home