अकेली मैं
ख्यालों की
अंगीठी पे
खदबदाते विचार
बटलोई से
बाहर आने को आतुर
पानी का छीटा
मार कर
बार बार
भीतर भेजती मैं
इसी उहापोह में
बीतती जिंदगी
कभी जान ही
न पाई
कहाँ है
मन की ख़ुशी
भागती रही
बावरी सी
कभी इधर
कभी उधर
आज समझ में आया
जब समय ही
न रहा हाथ में
रेत की तरह
फिसलता जा मिला
आकाश में
लेकिन
अब पछताए
क्या होत
जब चिड़िया न खेत
सूना आकाश
विलीन सूरज
घर जा चुके पंछी
खाली खाली सा मन
सब एक से ही
दीख पड़ते है
तुम ही कहो
कहाँ खोजू तुम्हे
अपने सिवा
खुद के सिवा
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1 Comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-09-2016) को "आदमी बना रहा है मिसाइल" (चर्चा अंक-2455) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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