जिस्म की ऐसी तैसी
जिस्म से रूह की
कब पटी है
रूह तो न जाने कब से जिस्म को
अलग करने के लिए
खड़ी है
ये जिस्म ही रोज बहाने बनाता है
साठ सत्तर साल खुद को चुटकियों में
खींच ले जाता है
रूह ठगी रह जाती है
जानती है
ये जिस्म की मनमानी है
फिर भी
रूह हार नही मानती
एक दिन
मेहनत रंग लाती है
रूह जीत जाती है
जिस्म की ऐसी तैसी कर उसे बेदर्दी से
खींचती हुई ले जाती है।
कब पटी है
रूह तो न जाने कब से जिस्म को
अलग करने के लिए
खड़ी है
ये जिस्म ही रोज बहाने बनाता है
साठ सत्तर साल खुद को चुटकियों में
खींच ले जाता है
रूह ठगी रह जाती है
जानती है
ये जिस्म की मनमानी है
फिर भी
रूह हार नही मानती
एक दिन
मेहनत रंग लाती है
रूह जीत जाती है
जिस्म की ऐसी तैसी कर उसे बेदर्दी से
खींचती हुई ले जाती है।
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