अस्तित्व से लड़ाई
एक दिन मेरे अस्तित्व ने
मुझसे की लड़ाई….
मैने पूछा क्या- दुख है ?
बोला…आप जैसी है,
वैसी दिखती नही है..
मैने पूछा ..मतलब?
बोला ..ओढ़े है कितना नक़ाब आपने…
सचाई पे झूट का परदा..
ईमानदारी की ओट मे
बेईमानी का परदा…
दिखने में बहादुर - अंदर से डरी हुई…
कैसा ये आपका सच है??
मैने कहा हाँ.....तुम्हारी बात मे दम है..
लेकिन इन सब के बिना रह
पाना कहाँ मुमकिन है?
यदि हम पूरे के पूरे सच्चे बन जाएँगे……….
तो क्या समाज से
निष्काशित (आउट ऑफ समाज) नही कर दिए जाएँगे?
बोला अस्तिव..
बात आपकी
सौ फीसदी सही है…
लेकिन मैं कैसे बिठा सकता हूँ समन्जस्य ……
झूठ और सच मे……..
जहर और अमृत
एक साथ कैसे पी सकता हूं?
बताए कितने दिन मैं
घुट घुट के जी सकता हूं?
मैने कहा छोड़ो
चलो दोनो अपना अपना काम करते है…
तुम सच पे चलो
हम झूठ से बचने की कोशिश करते है…
कोशिश आज भी जारी है………
लेकिन झूठ से पीछा छुड़ा पाना
आज भी मेरे लिए भारी है……..
है कोई उपाय तो आप बताए
वरना इस कोशिश मे मेरा हाथ बटायें
- Ravindra Shukla बहुत ही सरल बात में गंभीर सम्प्रेषण काव्य की और तुम्हारे खूबी है ये----लय में लिखे गयी रचना जो अंत तक बंधे रखती है ---वाह अपर्णा भाव को मजबूती से कह गयी-------हम अपने को तुम्हारे बहुत पास पाते है ------..21 minutes ago · · 1 person
- Nirmal Paneri अच्छी अभिव्यक्ति है......साचा बोलना कटीं और मुसीबत भरा है ...आज मुझे परिणामो की तसाह पल में चाहिए ...पर फिर भी मेरी कोशिस की में ....हम झूठ से बचने की कोशिश करता रहूँ शायद परिणाम मजबूत बुनियाद जेसा हो .....!!!!!!!!…!!!!!!!!9 minutes ago · · 2 people
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