Saturday, June 18, 2011

इन्हे बरस ही जाने दो


आँसुओं की बात निकली हैं
तो इन्हे बरस ही जाने दो
क्यूँ रोकते हो इनको
ये तो बस दर्द का ज़रिया हैं
टूटा होगा अंदर से जब कोई बहुत बार
तब ही छलकी होंगी आँखें
कहाँ कब किसने तीर मारे हैं
कैसे ये से पाई होंगी
अपनों के गम की मार इन्हे
कहाँ ले आई हैं
जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ रुसवाई हैं
नाम देते हैं बेवफा का हमको
तुमने भी कहाँ प्रीत निभाई हैं
ये तो मेरी आँखे हैं
जो आज भी भीग जाती हैं
याद मे तेरी
वरना तुमने भी कहाँ
वफ़ा निभाई हैं...

1 Comments:

At July 14, 2013 at 6:08 AM , Anonymous Anonymous said...

:(

 

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