इन्हे बरस ही जाने दो
आँसुओं की बात निकली हैं
तो इन्हे बरस ही जाने दो
क्यूँ रोकते हो इनको
ये तो बस दर्द का ज़रिया हैं
टूटा होगा अंदर से जब कोई बहुत बार
तब ही छलकी होंगी आँखें
कहाँ कब किसने तीर मारे हैं
कैसे ये से पाई होंगी
अपनों के गम की मार इन्हे
कहाँ ले आई हैं
जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ रुसवाई हैं
नाम देते हैं बेवफा का हमको
तुमने भी कहाँ प्रीत निभाई हैं
ये तो मेरी आँखे हैं
जो आज भी भीग जाती हैं
याद मे तेरी
वरना तुमने भी कहाँ
वफ़ा निभाई हैं...
1 Comments:
:(
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