हवा को कभी पकड़ा जा सकता हैं..
खुश्बू को कभी बाँधा जा सकता हैं..
दरिया को कभी रोका जा सकता हैं..
रेत को कब तक मुट्ठी मे रोका जा सकता हैं..
बताओ...है कोई जवाब तुम्हारे पास
तुम सब जानते हो..फिर भी पकड़ना चाहते हो परछाई को..
जिसका अपना कोई अस्तित्व नही होता
वो तो बस चलती हैं..सामनेवाले के सहारे..
क्यूँ बार बार ले आते हो ...अतीत को सामने..
मैं कहती हूँ मत पकडो...समय की चाल को समझो..
उसके खेल को समझो...जो तुम्हारे ज़रिए खेलना चाहता हैं..
ले आया हैं एक नियती बनाकर..
सच्ची...अपने साथ इतना रूखापन ठीक नही
तुम्हारे अंदर रस का दरिया मैने देखा हैं..
जिसे तुमने बाँध बनाकर रोक दिया हैं..
बहने दो.. रसवन्ती की तरह...जो कभी नही रुकती...
बस चलती हैं..उड़ती हैं..मस्त रहती हैं..बिखेरती हैं खुशी
जिसके संपर्क मे आती हैं..तुम भी बन जाओ..उसकी तरह..
जीने का मज़ा लो..मत दो सज़ा खुद को..
अपने आप पे रहम करो..
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