Thursday, October 15, 2015

सोच की सीढ़ी से जो नीचे उतरे


 दूर तक उड़ता हुआ पंछी
आकाश को निहारता रहा
नदिया शायद आज बुला ले मुझको

 जिंदगी गम देती है
किसने कहा तुमसे
मैंने तो मौत का जश्न मनाते देखा है उसे

मौत आती है सबके पास
जिंदगी जाती है होकर खास
बस अंतर इतना है एक में टीस बहुत है दुसरे में अपनापन

जिंदगी में लाने पड़ते है त्यौहार
मौत तो खुद ही जश्न होती है

कौन सोयेगा भूखा
किसको मिलेगी रोटी
उनके  कर्म करेंगे 
उपरवाले के यहाँ बेईमानी नहीं होती

 आज अखबार अधजला सा मिला 
शायद आग लगी किसी फैक्ट्री में
सिसकियो से भीग गया होगा किसी का आँचल भी आज

कहीं आग लगी
कहीं बेम फूटे
बच्चों को लगा दीवाली आई
किसी की किस्मत फूटी
किसी ने यु ही बेचारगी में जान गवाई

मौत से मिलने को उसके घर जाना होगा
पशोपेश में हूँ बिन बुलाये किसी के घर जो नहीं जाते

इस बजट में हो जायेगा सब महगा
मुझे रौशनी की दरकार है
कुछ पल तो उजालो में जी लू

वक़्त के साथ ज़माने को बदलते देखा
सुना है तुम भी बदल गए हो बहुत
मौसम का तकाज़ा है ये या
ज़माने से कदम मिला कर चलने की ख्वाहिश

मेरी बातों से लाल हुआ करते थे तबसुम जिनके
आज वो तबाही का मंजर लिये बैठे है
कही कोई मिसाइल तो नहीं चली दुनिया के किसी कोने में

एक वक़्त था भजन से नींद खुला करती थी
रात होती थी मंत्रो से
अब तो बस व्हाट्सएप्प से ही नींद खुला करती है
सुना है मुआ इंटरनेट जवान जो हुआ

अबकी मिले तो जम कर शिकायत करेंगे एक दूजे से
रोज का मिलना जो हो पाता तुमसे
तुम्हे भी तो पता चले पानी जब उबाल में होता है तो कितना गर्म होता है

एक कोने में बैठा चाँद रात भर सोचता रहा
तुम खूबसूरत हो या वो
नतीजे में शर्मा कर भाग गया वो
सूरज निकलने से पहले

तमाम मंसूबे बांधे थे तुमसे मिलने से पहले
मिले तो गोया कुछ याद ही न रहा
लगा इम्तेहान का परचा देखते ही दिमाग की बत्ती गुल हो गई हो जैसे

2 Comments:

At October 16, 2015 at 12:58 AM , Blogger मुकेश कुमार सिन्हा said...

सुन्दर कविता

 
At October 16, 2015 at 4:08 AM , Blogger अपर्णा खरे said...

Hausala Badhae ka Shukriya Mukesh Ji....tahe dil se abhaar

 

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