Thursday, October 8, 2015

तेरी शर्ट में उलझे मेरे बाल


शायद ये खवाब ही था
जब शर्ट में तेरी उलझे थे मेरे बाल
वो पल कभी नहीं आया
या यु कहो
वो पल वो लम्हा 
कभी आँखों से ओझल ही न हुआ
तुम नहीं थे 
फिर भी थे इर्द गिर्द
मेरी आँखों में चमक बन कर
तुम्ही तो दीखते थे
मेरी सांसो की महक बन कर
तुम ही तो महकते थे
बार बार मेरा वो पलकों को बंद करना
क्या था
तुम ही तो ठहरे थे मेरी पलकों में
एक कहानी बनकर
अलहदा से
लेकिन 
अपनी निशानी बनकर
काश
एक बार तो तो अ जाओ
मेरी खवाबो को सजाने के लिए
मेरे खवाबों की ताबीर बन कर

6 Comments:

At October 8, 2015 at 7:37 PM , Blogger राजीव कुमार झा said...

बहुत सुंदर .
नई पोस्ट : दिल मचल गया होता

 
At October 9, 2015 at 1:47 AM , Blogger अपर्णा खरे said...

Shukriya Rajeev ji..

 
At October 9, 2015 at 3:44 AM , Blogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (10-10-2015) को "चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज" (चर्चा अंक-2125) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

 
At October 9, 2015 at 4:13 AM , Blogger अपर्णा खरे said...

Shukriya Roopchandra ji..

 
At October 9, 2015 at 9:44 PM , Blogger प्रतिभा सक्सेना said...

वाह !

 
At October 11, 2015 at 10:21 PM , Anonymous Anonymous said...

तुम ही तो ठहरे थे मेरी पलकों में
एक कहानी बनकर
अलहदा से
लेकिन
अपनी निशानी बनकर
काश
एक बार तो अ जाओ.........Nice....:)

 

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