तेरी शर्ट में उलझे मेरे बाल
शायद ये खवाब ही था
जब शर्ट में तेरी उलझे थे मेरे बाल
वो पल कभी नहीं आया
या यु कहो
वो पल वो लम्हा
कभी आँखों से ओझल ही न हुआ
तुम नहीं थे
फिर भी थे इर्द गिर्द
मेरी आँखों में चमक बन कर
तुम्ही तो दीखते थे
मेरी सांसो की महक बन कर
तुम ही तो महकते थे
बार बार मेरा वो पलकों को बंद करना
क्या था
तुम ही तो ठहरे थे मेरी पलकों में
एक कहानी बनकर
अलहदा से
लेकिन
अपनी निशानी बनकर
काश
एक बार तो तो अ जाओ
मेरी खवाबो को सजाने के लिए
मेरे खवाबों की ताबीर बन कर
6 Comments:
बहुत सुंदर .
नई पोस्ट : दिल मचल गया होता
Shukriya Rajeev ji..
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (10-10-2015) को "चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज" (चर्चा अंक-2125) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Shukriya Roopchandra ji..
वाह !
तुम ही तो ठहरे थे मेरी पलकों में
एक कहानी बनकर
अलहदा से
लेकिन
अपनी निशानी बनकर
काश
एक बार तो अ जाओ.........Nice....:)
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