statue
कब से बैठी हूँ
यूँ ही मूर्तिवत
तुम स्टेचू कह कर
पता नहीं
कहाँ चले गए
अब आकर
ओवर कहो तो उठू
लेकिन तुम तो
शायद भूल गए
किसी को
यूं बैठाकर भी
आये हो
अब मेरी नजरों में भी
पुराने नज़ारे है
वो पल जो हमने
साथ साथ गुजारे है
जो एक एक कर
आते है
तुम्हारी याद दिलाते है
फिर लौट जाते है
क्या करूँ
मजबूर हूँ
पलक भी
झपका नहीं सकती
न पोछ सकती हूँ
अपने हाथों से
अपने ही गालों पे
ढुलके हुए आंसू
रंग बिरंगे
पुराने ख़्वाबों ने
पलकों में
जमा ली है
अपनी जगह
जो हटने का
नाम ही नहीं लेते
सब कुछ तेजी से
चल रहा है
लेकिन
मैं थमी बैठी हूँ
तुम्हारे इंतज़ार में
मैं भी थक गई हूँ
एक पोजीशन में
बैठे बैठे
अब जल्दी से आओ
और
खेल को ख़त्म करो
मुझे नहीं खेलना
तुम्हारे साथ
तुम बहुत
बेईमानी करते हो
चीटर कहीं के......
1 Comments:
over...........:)
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