Tuesday, July 11, 2017

प्रेमहीन स्त्री

स्वार्थ की पराकाष्ठा 
हो तुम

जिंदगी की जंगल में
विष की बेल हो तुम
जिस से लिपटी
उसे अपना पूरा 
जहर दिया
न जीने दिया 
न मरने दिया
धरती पे जो न 
सुख दे सके 
किसी को
ऐसी जंगली बेल हो तुम

क्या करूँ 
तुम्हारे गुणों की चर्चा
तुमने हर किसी को
अपने तीखे 
शब्द बाण
से परखा
न लेने दी सुख की सांस उसे
जिसने तुम्हे हरा भरा किया
कृतग्यहीन, भाव हीन
प्रेमहीन प्रणय मेल हो तुम

क्या कहूं तुम्हे
शब्द कम पड़ जाए
ऐसी दुनिया की जेल हो तुम

1 Comments:

At July 12, 2017 at 3:41 AM , Blogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (13-07-2017) को "पाप पुराने धोता चल" (चर्चा अंक-2665) (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

 

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