कस्तूरी..
जंगल जंगल पर्वत पर्वत
तय करना है दूरी को..
कितना मुश्किल है तय कर पाना
मॅन से मॅन की दूरी को..
जैसे मृग यूँ भटक रहा है..
ढूँढे है कस्तूरी को..
नही जानता जिसको ढूँढे
वो तो है उसके अंदर..
लेकिन पाने को कस्तूरी
जाना होगा अपने भीतर..
मृग के जैसी मेरी गति भी..
मैं भी हूँ उससे (गोद) अंजान..
तभी भटकती इधर उधर मैं…
होती रहती हूँ हैरान..
पता चले गर भीतर कस्तूरी..
क्यूँ भटके फिर इधर उधर…
कौन बताए मेरे भीतर
है कस्तूरी का विस्तार..
यदि मैं जानू भीतर कस्तूरी..
रुक जाउगी भीतर जाउगी
खुद को खुद से ही…मिलवाउंगी……..
खो जाउगी…खो जाउगी….
मृग की नाभि मे कस्तूरी फिर भी भूला जाए.........
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