मैं चला कहीं..दूर
जताना भी उसका, मनाना भी उसका..
सब अच्छा लगता हैं मुझको............
जा जा कर लौट आना उसका..
सीख पे सीख दिए जा रहे हो
क्या तुम भी उसकी दी कसम निभा रहे हो..
मिट्टी के पुतलो पे भरोसा करते हो
जब वो बदलते हैं तो गुस्सा करते हो..
अजीब अंदाज़ हैं तुम्हारा
ना पगलाओ, ना बर्गलाओ
मेरी मानो तो उपर से कूद जाओ..
हसरतो को जवान रहने दो..
क्यूँ मारते हो दिल को..
कुछ तो जीने का सामान रहने दो
कुछ तो इलाज़ करो अपना..
पत्थर दिल हैं सनम अपना..
पंछी भी अपना जुबा भी अपनी..
कट गई जो जुबा तो..तकलीफ़ भी अपनी..
मैं उसकी खामोशी का सबब पूछती रही,
वो किससे इधर उधर के सुना कर चला गया ... !!!
जैसा तुमने छोड़ा था...वैसे ही हैं हम..
चिंता ना किया करो...बदले नही हैं हम..
कितना कठिन होगा खुद को रोक पाना..
चट्टान तो नही था वो..
कितना मज़बूर रहा होगा वो..
जब कहा होगा उसने...मैं चला कहीं..दूर
2 Comments:
आपकी यह रचना कल बुधवार (22 -05-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
bahut bahut shukriya sarita ji..
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