वो मज़बूर आदमी...
हर छण उस पे मंडराता हैं
आतंक का साया
वो आज भी ठीक से
नही सो पाता....
कभी कभी तो नींद मे ही
पसीने से सराबोर हो जाता हैं..
आज जब सब कुछ ठीक हैं..
फिर भी वो उबर नही पाया हैं
अपनी पिछली बातों से...
सच बहुत बुरे दिन भी तो
देखे हैं उसने..
कभी ठीक से हंस भी ना पाया..
कैसे हंसता बेचारा..
उन दरिंदो ने उसे कहीं का
ना छोड़ा था..
सब कुछ उसकी आँखो के सामने जो
लूट लिया था..
पैसा, रूपिया...इज़्ज़त, आबरू सब कुछ..
कहने को तो वो...समाज के रखवाले थे...
सो शिकायत भी करता तो किस से..
उसी के सामने...उसी की प्रेमिका....
ओह...मत याद दिलाओ वो मंज़र
..क्या करती छलाँग लगा दी...गहरी खाई मे..
कुछ ना बचा....सब गया...हाय रे ये मनुष्य
तूने ये क्या किया...माँ, बहन, भाभी......
सबको भूल गया....
याद रहा तो बस....उसका औरत होना..
इस से तो अच्छा होता...तू नपुंसक ही होता..
कम से कम लाज़ तो ना जाती किसी की..
(ये कविता उस समय की हैं जब कश्मीर पे आतंक का साया था...आतंकवादी जब जी चाहता था घुस जाते थे मनचाहे घर मे और घर की महिलाओ से अत्याचार करते थे और उनके पतिओं को रस्सी से बाँध दिया करते थे...की शोर मत करना..और जो आतंकवाद्ीओं से बचता था..वो वहा पे तैनात सिपाही लूट लिया करते थे..बेचारे कश्मीरी..तो दोनो और से गये...मारने वाला और बचाने वाला दोनो एक जैसे...जाए तो जाए कहाँ...उस समय घर की ना जाने कितनी औरतों ने आत्महत्या कर ली..वो आतंक का साया उनके चेहरो पे आज भी दिखता हैं कश्मीर से लौट कर..)
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