जीवन की परिभाषा..
कभी है आशा,
कभी निराशा..
क्या यही है
जीवन की परिभाषा..
सुख मे हम सब
हंसते रहते…….
दुख मे नीर बहाते है..
क्यूँ नही उसके दिए पर ..
अपनी मुहर लगते है….
मुहर लगाते ही हम..
खुशियो से भर जाते है…
नही तो दुखो को
समेट कर..
हम जीवन भर
चिल्लाते है..
जो आए अपने
हिस्से मे..
हँसी खुशी
स्वीकार करे..
क्यूँ अपने आप
से लड़कर..
उसकी भेट
का तिरस्कार करे..
सुख और दुख
से भी उपर
एक आनंद का
जीवन है..
जो चखता
इस राम रस को…
महका
उसका जीवन है..
संतो ने है
इसको पाया..
ईश्वर सेवा मे
खुद को लगाया..
खुद को भूले…
जग को भी
ये भूले है..
तभी आनंद के
हिंडोलो मे ..
ये सब झूला झूले है..
हम भी इनसे
उपर हो जाए..
रोज़ आनंद उत्सव मनाए..
उसी उत्सव के
जीवन मे अपना..
दुख सुख भूल ही जाए..
खुद को गवाए..
उसको पाए..
संतो सा हो जीवन अपना…
आनंद मे नित रहना है…
यही है सच्ची.परिभाषा.
नही हो आशा ..नही निराशा..
बचे सिर्फ़ ईश्वर अभिलाषा..
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