Saturday, February 11, 2012

तुम जिंदगी से बतियाती रही


मैने तुमसे कहा
चलो बाज़ार चलते हैं
तुम बच्चो का रोना ले बैठी

मैने तुमसे कहा काली घटाए छा गई हैं
तुम छत पे कपड़े लेने जा पहुची

मैने कहा इस बार होली पे नई सारी ले लेना
तुम बोली बच्चो के कपड़े ले आए...

 मैने कहा चलो साथ मे कोई गीत गाये
तुमने कहा चलो मुन्ने को सुला आए

मैं करता रहा इश्क़ की बाते
तुम जिंदगी से बतियाती रही

2 Comments:

At February 11, 2012 at 7:11 AM , Blogger सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

सबकी अपनी जमीन और अपना आसमान होता है।
गृहिणी का काम जिन्दगी के बहुत करीब होता है।

सुन्दर कविता।

 
At February 12, 2012 at 9:04 AM , Blogger अपर्णा खरे said...

thanks siddharth ji...sach kaha apne..

 

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