Thursday, August 18, 2016

परख


कच्चे रंगों में पक्का रंग 
ढून्ढ रही है पगली
देखो न फिर से 
गलती कर रही है पगली

पहले करने है मजबूत 
अपने हाथ पाँव
खुद को खुद ही 
मज़बूर कर रही है पगली

कितने अपने खड़े है सामने
लेकिन पहचान ही नहीं 
पा रही है पगली

मांग सकती है अपनों से 
सही सलाह
दुश्मनों को दोस्त समझ
धोखा खा रही है पगली

समझ नहीं आ रहा 
कैसे दिखाए इसे सही राह 
ये तो किसी की भी 
नहीं सुन रही है पगली

2 Comments:

At August 19, 2016 at 2:43 AM , Blogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20-08-2016) को "आदत में अब चाय समायी" (चर्चा अंक-2440) पर भी होगी।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

 
At August 19, 2016 at 11:12 PM , Blogger Onkar said...

बढ़िया रचना

 

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