परख
कच्चे रंगों में पक्का रंग
ढून्ढ रही है पगली
देखो न फिर से
गलती कर रही है पगली
पहले करने है मजबूत
अपने हाथ पाँव
खुद को खुद ही
मज़बूर कर रही है पगली
कितने अपने खड़े है सामने
लेकिन पहचान ही नहीं
पा रही है पगली
मांग सकती है अपनों से
सही सलाह
दुश्मनों को दोस्त समझ
धोखा खा रही है पगली
समझ नहीं आ रहा
कैसे दिखाए इसे सही राह
ये तो किसी की भी
नहीं सुन रही है पगली
2 Comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20-08-2016) को "आदत में अब चाय समायी" (चर्चा अंक-2440) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया रचना
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