rudravtaar
ना जाने कैसे..
कब, कहाँ...तुमसे मिली...
कब हुई दिल की बाते...
कब बाँटा... अपने हिस्से का दुख सुख
कब खुली ......तुम्हारे साथ....
खुलती ही ...चली गई....
तुम भी जैसे..आए..जीवन मे
विघ्न विनाशक की तरह......
हर दुख हर लिया मेरा.... पी गये ....
मेरे हिस्से का भी गरल
बन बैठे शिव..
दुनिया के लिए रुद्रवतार
मेरे लिए केवल और केवल...शिव...
जिसे सृिस्टी सहित..मेरा ही ध्यान था..
पार्वती समझ कर .... मेरे दुखो का वरण
जो कर लिया था तुमने..
मैं निर्मल होती चली गई...
तुम्हारे सानिध्य से..
और तुम... विषाक्त...
जहर पीते पीते..
तुम्हारी महिमा बढ़ती चली गई....
मैं भी तुमको
आत्मसात करती चली गई..
अब तुम्हे या मुझे
एक दूसरे से.. कुछ कहना नही पड़ता..
हम जानते थे.. आँखो की भाषा..
पढ़ लेते थे मौन की भाषा..
आज मेरे भीतर पलता हैं
एक नन्हा सा गणेश..
जबकि हमारा
कभी नही हुआ भौतिक मिलन
जो हम दोनो के
निस्वार्थ प्रेम का सेतु हैं...
लाता हैं हमे
एक दूसरे के करीब..
जब हम फस जाते हैं
अपने अहम मे.. या फिर
संसार के भवर मे...
ये सेतु..ये प्रेम...ये गणेश...ये शिव..ये रुद्र
सब तुम हो...
मैने तो कर दिया
समर्पण
तुम्हारे सामने..
सबके सामने..
अब तुम जानो..