बूढा पिता
बुढ़ाते पिता
युवा होती बेटी
घटता पुरुषाथ
बढ़ता यौवन
अब सब कुछई
पहले सा नहीं रहा
अब बेटी के नन्हे प्रश्न
कहीं खो से गए है
बेटी अब हर बात
पिता से नहीं बताती
नहीं रही वो
मासूम सी मटरगश्ती
जब दोनों एक दुसरे के साथ
खूब ऊधम मचाया करते थे
पिता अब टेलीविज़न पर
अंतरंग दृश्यों को देख
चॅनेल बदलने की
कोशिश करता है
बेटी के जीवन की किताब
जो रंगीन सपनो से भरी है
धीरे धीरे अपना
आकार ले रही है
बेटी उड़ना चाहती है
मुक्त गगन में
पिता उड़ने की कीमत जानता है
वक़्त के साथ
काट दिए जाते है पंख
जूझना पड़ता है
समाज की बेडियो में
पिता जानता है
कोई अजनबी एक दिन
ले जायेगा उसकी बेटी को
हमेशा के लिए
फिर भी पिता मन ही मन
खुद को मजबूर पाता है
शायद नियति के आगे
बेबस हो जाता है
बेटी अब भी नींद में
सुनहरे स्वप्न देख
मुस्कुराती है
बूढ़े पिता को
बेटी की चिंता में
रात रात
नींद नहीं आती है