आँखो का ख़याल आते ही
आँखो का ख़याल आते ही
ना जाने क्या हो जाता हैं मुझे
किसी ग़रीब की जर्द पीली आँखे दिखती हैं मुझे
जिसने बरसो से ढंग से खाना भी खाया हो..
कभी दिखती हैं शराबी की लाल सुर्ख आँखे
जो गम ग़लत करने के लिए पी आया हो कहीं से
कभी दिखती हैं किसी बेबस मज़बूर बाप की आँखे
जिसकी बेटी कवारी बैठी हो दहेज के लिए......
कभी दिखती हैं किसी बूढ़े माँ-बाप की आँखे
जिनका बेटा अधर मे छोड़ गया हो उनको..
अपनी महत्वकाँशा के लिए.........
कभी किसी प्रेमिका की आँखो मे झाँका मैने
तो उसे प्रियतम का इंतेज़ार करते पाया हैं
या फिर किसी रूपसी की दर्प से भरी आँखे
आँखे हैं की बिन बोले सब बयान कर देती हैं
गम मिले क्या खुशी जिंदगी मे.....
सब बखान कर देती हैं...
कैसे करू शुक्रिया इन आँखो का
ये तो बस ना करने वाला काम
भी कर देती हैं..
लम्हा सुहाना यहाँ जो मिला..
तेरी गलियाँ हैं हमदम मेरे लिए
तेरी फ़िक्र से हूँ जिंदा मेरे सनम
हर तरफ हैं धुआँ ही धुआँ......
तुझे भी खबर, मुझे भी पता
हाथ को हाथ देता सुझाई नही
क्या करूँ रख के खबर
किसी और की तेरे सिवा?
बढ़ रही भीड़ दुनिया मे
आज कल.................
नही कुछ खबर "पल" की यहाँ
जीना हैं तो जी ले हर एक पल
लम्हा सुहाना यहाँ जो मिला...
तेरी तरसती निगाहे
तेरी तरसती निगाहे
गर खोजती हैं मुझे
तो मुझ तक पहुचती
क्यूँ नही....
क्यूँ करती हैं देर आने मे....
मैं तो अब भी उसी मोड़ पे हूँ
जहाँ छोड़ा था तुमने मुझे..
प्यार का जो नन्हा बीरवा
रोपा था जो धीरे से मेरे मॅन मे
फूल कर बहुत बड़ा हो चला हैं
दुपट्टे का कोना भी साडी की
लंबी चीर मे बदल चुका हैं
चाँद भी हैं..तारे भी हैं...
हमारे प्यार के गवाह..
ये सितारे भी हैं..........
बस तुम नही हो...
गर्म एहसास तुम्हारा
आज भी मुझे..जलाता हैं...............
तेरे यही कहीं आस पास ..............
होने को दर्शाता हैं.......................
निकल जाए ना वक़्त हाथों से....
डोर ना टूट जाए अपनी सांसो की
कह रही हैं तुम्हारी नर्म साँसे तुमसे...
एक बार चले आओ.................
अब उम्र के आख़िरी पड़ाव पे
खड़ी हूँ...यू ना तड़पाव...
मौत भी आ जाएगी चैन से..
देख लूँगी तुमको गर जी भर के..
रुदाली
सुना हैं होती थी रुदालिया
जो दूसरो के गम मे
जा जा के रोया करती थी
पर समझ नही आया अब तक
ऐसी परंपरा क्यूँ थी?
क्या अपने दुख उनके रोने से
हल्के हो जाते हैं?
दुख तो दुख होता हैं
दूसरो के रोने से कहाँ जाता हैं?
ये तो लहू बन कर ....
भीतर मे कहीं जम जाता हैं..
जो खरोचने से भी
नही निकलता हैं
खुद के दुख को दूसरा रोकर
कैसे बाँट सकता हैं?
यह बात अब तक नही पड़ी पल्ले..
मन बार बार यही प्रशण करता हैं?
चंद पैसो के लिए नकली रुदन
कहाँ से निकली परंपरा हैं?
दुख तो पहाड़ जैसा होता हैं
जिसके सिर पर टूटता हैं
वो ही समझ सकता हैं
रुदाली चाहे कितना भी रो ले
क्या कभी दुख कम होता हैं?
नही..............
दुख तो परमात्मा के
द्वारा भेजी गई सौगात
जैसा होता हैं
जो इस बात को जितनी
जल्दी समझ लेता हैं
वो जिंदगी को उतनी की
शानदार तरीके से जीता हैं