लेन देन
पहले जमाने मे मुद्रा
नही हुआ करती थी..
लोग अपने व्यवहार मे
लेन देन
अनाज बदल कर
किया करते थे..
सब के पास
खूब सारा
वक़्त हुआ करता था
आपस के सुख दुख
बाटने की खातिर
यहाँ तक कि
एक का मेहमान
पूरे गाव का मेहमान
हुआ करता था..
कोई अचार दे जाता
कोई चारपाई
कोई मट्ठा पिलाता
कोई आम खिलाता
मिल बाट कर रहते थे...
खुशी और गम
सब एक साथ
सह लिया करते थे..
अब तो जैसे
वक़्त ही नही रहा
किसी के पास
सब भागे जा रहे हैं....
बिना मंज़िल की
पहचान किए
बस कमाना हैं,
खाना हैं
मर जाना हैं..
जीवन की आपाधापी मे....
कोई किसी के लिए
कुछ सोच ही नही पाता .
ना अच्छा ना बुरा
बस जिए जा रहे हैं....
जैसे खुद पे एहसान
किए जा रहे हैं..
ऐसे मे लेन देन भी कैसा...
स्वार्थवाला..
उसने वो दिया
मैने ये दिया..
कहाँ वक़्त हैं
किसी की ज़रूरत जानने
जज्बातों को समझने का...
साथ देने का...
दूसरे के दुख मे
कूद पड़ने का....
सच आज कल
लेन देन का
मौसम नही रहा...
सब कुछ बदल गया...
इंसान इंसान ना रहा...