होली नहीं मनाता फकीर
जो रहता हो
एक रंग में
जो जीता हो
एक रंग मे
जिसने दुनिया के
किसी रंग को
अपना नहीं माना
सुख हो या दुःख
सब उस ईश्वर का जाना
नहीं किया
कभी किसी से गिला
जहर भी मिला तो
हंस कर
मीरा की तरह पिया
पाये अनेक ताने
नानक की तरह
फिर भी
रहे दुनिया से बेगाने
बुद्ध की तरह
खुद को
खो दिया
खुद भी रमे
सब को भी
डुबो दिया
कबीर की तरह
न देखि जात
न पात
सबको दिया
ढाई आखर का पाठ
झांकते रहे
खुद के भीतर
राबिया की तरह
रौशनी देखि
देखा उसका नूर
अपने दादा की तरह
जग में
प्यार फैलाया
मरने से पहले
मरने का
आनंद पाया
लगाया सबको गले
है ही आत्मा
आत्मा से
न कुछ परे
फकीर का
हर रंग एक है
है इसके भीतर
अनेक रंग
फिर भी वो बेरंग है
नहीं चढ़ाता
किसी रंग
खुद पर
अपने रंग में
सबको रंगता है
फिर भी यही कहेंगे
फकीर कभी
होली नहीं मनाता
एक रंग में रहता है