अकेली मैं
ख्यालों की
अंगीठी पे
खदबदाते विचार
बटलोई से
बाहर आने को आतुर
पानी का छीटा
मार कर
बार बार
भीतर भेजती मैं
इसी उहापोह में
बीतती जिंदगी
कभी जान ही
न पाई
कहाँ है
मन की ख़ुशी
भागती रही
बावरी सी
कभी इधर
कभी उधर
आज समझ में आया
जब समय ही
न रहा हाथ में
रेत की तरह
फिसलता जा मिला
आकाश में
लेकिन
अब पछताए
क्या होत
जब चिड़िया न खेत
सूना आकाश
विलीन सूरज
घर जा चुके पंछी
खाली खाली सा मन
सब एक से ही
दीख पड़ते है
तुम ही कहो
कहाँ खोजू तुम्हे
अपने सिवा
खुद के सिवा
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