चाँद
तुम भी कितना धमकाते हो यार
"चाँद" को भी नही छोड़ते
क्या करे बेचारा चाँद...
"चाँदनी" उसे छोड़ती ही नही
आना चाहता है तुम्हारे पास
लेकिन उनकी अठखेलिया
उसे वक़्त ही नही देती
देख सके वो किसी और की और..
कल की ही बात हैं मैने बनाया
नरम गरम हलुवा
चाँद को भी बुलाया
लेकिन बेचारा नही आ पाया
जबकि उसे हलवा कितना पसंद हैं
ये तुम भी जानते हो और मैं भी
हर कोई मज़बूर हैं
मेरी और तुम्हारी तरह....
नही आ सकता मिलने...
चाह कर भी....सोच कर भी
तब भी दुनिया चलती हैं...
हैं ना ..देखो
हम भी तो जी रहे हैं...
"चाँद " के बिना..
साथ के बिना..
पशोपेश मेरे मन की..
तुम्हारी मेहन्दी मे
रंग मेरा हैं
उष्मा मेरी हैं,
उर्जा मेरी हैं
तभी तो हैं ये
लालोलाल
कर रही तुम्हारी
हथेली पे कमाल
मत करो चिंता
कोई तुम्हारा नही
तुम्हे खुद से हैं प्यार
क्या इतना ही काफ़ी नही..
क्यूँ खोजे किसी और को
जो हमे प्यार करे,
मन हो तो ठोकर दे
हमे छोड़ के चल दे...
नही चाहिए ऐसा प्यार
आज से कहो..
हमे खुद से हैं प्यार..
हम हमारे अपने हैं यार
लकीर का फकीर से भी होता होगा कोई ताल्लुक
लकीर का फकीर से भी
होता होगा कोई ताल्लुक
तभी तो ये मुहावरा बना हैं
लकीर के फकीर
लेकिन मुझे तो लगता हैं
फकीर को लकीर की
ज़रूरत ही कहाँ हैं...
वो आज पे जीता हैं..
कल पे कुछ नही रखता हैं..
फिर उसे ना किसी की चिंता
ना फिकर, रहता हैं अल्मस्त....
तभी तो ले पाता हैं
असली जीने का मज़ा..
ईश्वर से नज़दीकी..
जो हम सब के नसीब मे कहाँ?
हम सब तो लकीर के मारे हैं..
जिंदगी किताब ही हैं दोस्त
जिंदगी किताब ही हैं दोस्त
बस कुछ पन्ने तुमने बदल कर
दूसरे लगा दिए हैं
हरफ़ बदल दिए हैं..
नई सी कर दी हैं
किताब की जिल्द
लेकिन हर्फ बदलने से
क्या जिंदगी के मायने भी
बदल जाते हैं..
जो नही होता अपना..
क्या वो भी अपना हो जाता हैं?
नही ना...
तो पन्ने बदलने से क्या फायदा
जो जैसा उसे उसे वैसा ही रहने दो..
मत बदलो कुछ भी...
सब वैसा का वैसा रहने दो...
देखना जिंदगी खुद पलट कर
तुम्हारे पास आएगी...
मिटा देंगी तुम्हारे सारे गम..
बाग मे तेरे भी खुशिया
लहल़हाएँगी..
नई खुशिया लाने के लिए
मेरा नाम बसंत हैं
बाँटता हूँ खुशिया
भर देता हूँ तुम्हारे अंदर
नये रंग, उल्लास, उत्साह
फिर चला जाता हूँ
तुम्हारी सारी उदासी
समेट कर...
अगले साल फिर से
नई खुशिया लाने के लिए
पता हैं क्यूँ?
क्यूंकी तुम्हे खुशिया पसंद हैं..
और मुझे तुम...जब खुश रहते हो..